आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में जहां
अतुकान्त तथा छन्दमुक्त कविता ने अपना
स्थान बनाया है
वहीं छंदयुक्त कविता ने
अपनी अलग पहचान
बनानी शुरू की
है। इस दौर
में हिन्दी साहित्य ने विश्व
साहित्य की अनेक
विधाओं को न
केवल अपनाया वरन अपने
अनुरूप ढाला भी
है। गज़ल उन्हीं विधाओं में से
एक है और
सबसे अधिक लोकप्रिय भी।
गज़ल सुनने और
पढ़ने में जितनी
आकर्षक और सरल
लगती है उसे
लिखना उतना ही
कठिन कार्य है।
कठिन इस मायने
में कि शिल्प
की दृष्टि से उसे
दुरूस्त रखना आसान
नहीं होता। आत्मसंतुष्टि के लिए लिख
देना और कुछ
लोगों से प्रशंसा पा लेना अलग
बात है और
शिल्पगत ढांचे में
एक सही गज़ल
प्रस्तुत करना एक
अलग बात। मेरे
सामने सबसे बड़ी
समस्या यह रही
कि गजल लिखना
सीखा किससे जाए
तो उसका वही
रास्ता मैंने चुना
जो कि पढ़ने
और पढ़ाने के
दौर में किया
करता था। पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध लेखों को पढ़कर उनसे
अपने नोट्स बनाने
शुरू किए हैं।
सीखने के इस
दौर में नोट्स
यहां इस अनुरोध के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं
कि जो सुधीजन इस क्षेत्र में जानकारी रखते हैं वे
इसे पढ़ें और
यदि कुछ छूट
गया हो तो
उसकी जानकारी दें तथा
यदि कुछ त्रुटि हो तो उसे
सुधारने का कष्ट
करें।
गजल की उत्पत्ति-
गजल की उत्पत्ति लगभग 1000 साल
पहले ईरान में
हुई थी। वहां
की फारसी भाषा
में इसे लिखा
तथा कहा गया।
माना जाता है
कि गज़ल कसीदे
से निकली। अरबी भाषा
में गजल का
अर्थ होता है
कातना बुनना। कसीदा का
अर्थ होता है
किसी की शान
में कुछ कहना।
कसीदे राजाओं की तारीफ
मे कहे जाते
थे। शायर अपनी
रोजी रोटी चलाने के
लिए शासकों की झूठी
तारीफ करता था
और विलासी राजाओं को वही
सुनाता था जिससे
वो खुश होते
थे। बादशाहों, अमीर, उमरावों आदि की प्रशंसा में लिखे जाने
वाले कसीदे का
पहले तो फारसीकरण हुआ, तत्पश्चात् ईरान के
शायरों में उसकी
तशबीब (शृंगारिक भूमिका) को कसीदे
से अलग करके
उसका नाम गजल
रखा। ईरान में
यह विधा बहुत
फूली-फली तथा
लोकप्रिय हुई। वस्तुतः भारतवर्ष को यह
विधा ईरान की
ही देन है।
फारसी भाषा में
गजल का मतलब
होता है प्रेयसी या औरतों से
वार्तालाप। विलासी राजा औरतों
के जिक्र से
खुश होते थे
तो शायर औरतों
और शराब का
जिक्र ही गजलों
मे करने लगे।
यहीं पर इसका
बहर शास्त्र बना जो
फारसी में था।
जैसे औरतों की
बातचीत एक ही
विषय पर केन्द्रित नहीं होती, उसी
तरह गजल के
प्रत्येक शेर में
भी विषयांतर मिलता है।
कुछ लोगों का
मानना है कि
अरब देश में
गजल नाम का
एक व्यक्ति था जो
दिन भर के
युद्ध में त्रस्त लोगों के मनोरंजन हेतु अक्सर रात
में हुस्न और
इश्क से सराबोर कविताएं सुनाया करता था।
उसी व्यक्ति के नाम
पर बाद में
उसकी काव्य शैली
का नाम गज़ल
पड़ गया। उस
समय से जिस
कविता का विषय
हुस्न और इश्क
होता लोग उसे
गजल कहते।
कुछ लोग गजल
को पीडा के
अर्थ में भी
लेते हैं। जो
गज़ाला या हिरण
को तीर लगने
से उत्पन्न होती है।
यानी की गज़ल
के शेरों में
एक टीस या
बेचैनी का आभास
भी होता है।
गज़ल का अर्थ
जवानी का हाल
बयान करना अथवा
माशूक की संगति
और इश्क का
जिक्र करना भी
है। इसलिए एक
गजल में प्रेम
के भिन्न भिन्न भावों के
शेर देखे जा
सकते हैं।
उर्दू के आलोचक
सरवरी साहब गजल
का अर्थ जवानी
का हाल बयान
करना बताते हैं।
कादिरी साहब गजल
का अर्थ इश्क
और जवानी का
जिक्र मानते हैं।
वे कहते हैं
कि हर वह
चीज गजल में
अवांछनीय है जो
माशूक यानी नायिका या प्रेमिका की शान
के विरुद्ध जाती है।
डॉ सैय्यद जाफर के
विचार से गज़ल
शुरू से दिलवरों की बात कहती
आई है। आले
अहमद सरूर इसे
सौंदर्य गाथा से
अधिक इश्क गाथा
मानते हैं। साथ
ही वे कहते
हैं कि इसमें
शायर का व्यक्तित्व भी उजागर होता
है। वैसे वे
भी गजल को
महबूब से बात
करने की ही
एक विधा मानते
हैं। वे लिखते
हैं कि वैसे
तो गजल महबूब
का नाम है
मगर उसमें सौंदर्य गाथा से ज्यादा इश्क की हिकायत है।
गजल का स्थाई
भाव प्रेम है।
वह सौंदर्य गाथा से
अधिक प्रेम की
गाथा है। गजल
हृदय की अनुभूतियों की सूक्तिमय शैली है
जिसकी अपनी भाषा,
अपने भाव, अपनी
उपमा एवं अलंकार होते हैं। किसी
बात को सीधे
कहना गजल को
पसन्द नहीं। वह
संकेतों में बात
करना ज्यादा पसंद करती
है। यही गजल
की खूबसूरती भी है
व उसकी सीमाएँ भी।
शेष अगली बार…….
- बृजेश नीरज
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