Saturday 16 March 2013

राज गहरे कई


ये फिजाएं खोलती हैं राज गहरे कई
इस कली में बंद हैं नादान भौंरे कई

हम तो आशिक हैं हमारा क्या बहल जाएंगे
आपके दामन पे हैं ये दाग गहरे कई

देर तक खामोश सी रोती रही जिंदगी
छूटते हैं जो यहां पर थे सहारे कई

इस जहां की दौलतें बेकार होने लगीं
हाथ फैलाए खड़े उसके दुआरे कई

जुल्म कितने बढ़ गए आवाज होती नहीं
अब यहां रहने लगे गूंगे बहरे कई
                      - बृजेश नीरज

5 comments:

  1. बहुत उम्दा ग़ज़ल!
    मतला और मक्ता तो लाजवाब है!

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  2. शब्दों का शिल्प लाजवाब है।
    वास्तविक विचारों से परिपूर्ण इस कृति के लिए आपको सादर बधाई!

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  3. बहुत ही लाजबाब ग़ज़ल,आभार.

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