ये फिजाएं खोलती हैं
राज गहरे कई
इस कली में
बंद हैं नादान
भौंरे कई
हम तो आशिक
हैं हमारा क्या
बहल जाएंगे
आपके दामन पे
हैं ये दाग
गहरे कई
देर तक खामोश
सी रोती रही
जिंदगी
छूटते हैं जो
यहां पर थे
सहारे कई
इस जहां की
दौलतें बेकार होने
लगीं
हाथ फैलाए खड़े
उसके दुआरे कई
जुल्म कितने बढ़
गए आवाज होती
नहीं
अब यहां रहने
लगे गूंगे व
बहरे कई
- बृजेश नीरज
बहुत उम्दा ग़ज़ल!
ReplyDeleteमतला और मक्ता तो लाजवाब है!
आपका आभार!
Deleteशब्दों का शिल्प लाजवाब है।
ReplyDeleteवास्तविक विचारों से परिपूर्ण इस कृति के लिए आपको सादर बधाई!
आपका आभार!
Deleteबहुत ही लाजबाब ग़ज़ल,आभार.
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