Friday, 15 March 2013

पर्वत पिघलने से रहा


यहां कोई क्रांति नहीं होने वाली
लाख हो-हल्ला हो
धरने और अनशन हों

क्रांति की सामग्री मौजूद नहीं यहां
जाति, धर्म, क्षेत्र में बंटे
लोग क्रांति नहीं करते
अपने पेट की फिकर में परेशान
लोग आंदोलन नहीं करते
सत्ता को राजा की तरह पूजने वाले लोग
परिवर्तन नहीं लाते

वर्जनाओं की आदत पड़ चुकी
सीमित साधनों में जीना स्वीकार कर चुके हैं
पैदा होते ही आत्मसात कर लिया
हम जनता हैं
हमें ढोना है एक उम्र
जिंदगी नहीं

गांधी के बंदरों की तरह
न हम देखते हैं
न सुनते हैं
न बोलते हैं

जो छिटपुट शोर-शराबा होता है
वह कुछ लोगों का शगल भर है
कुछ खाली लोगों का टाइमपास
कुछ धनाढ्य का शौक
कुछ सिरफिरों की सनक

अखबारों में फोटो छपने के बाद
सबकुछ शान्त
अपने जीवन के पुराने रंग में
फिर रंग जाते हैं सब

मोमबत्तियां जलाकर
न कभी जनता जगाई जा सकी
न सत्ता को विरोध का एहसास होता है

कुछ आकृतियों में
सजाकर रखी गयीं
मोमबत्तियां
देखने में सुन्दर दिखती हैं
आखिर
केवल दीवाली में ही
जलाने के लिए नहीं होती मोमबत्तियां

कुछ नारे भी हवा में गूंजते हैं
कुछ गीत गुनगुनाए जाते हैं
कुछ गज़लें भी गायी जाती हैं
दुष्यन्त कुमार की
बिना उनका मतलब समझे

लेकिन अगर
पीर पर्वत सी हो गयी
तो पिघलेगी कैसे
उसके लिए आंच कहां है
मोमबत्ती की गरमी से तो
ये पर्वत पिघलने से रहा।
                     - बृजेश नीरज

2 comments:

  1. कविता के विचार अति उत्तम हैं और अहम विन्दु पर प्रकाश डाल रही है।
    आपकी इस रचना में पिछली रचनाओं की प्रतिध्वनि प्रतीत होती है।

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    Replies
    1. आपका आभार!आपका आशय समझ नहीं पाया। प्रतिध्वनि किस तरह से?

      Delete

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