उकता गया हूं
वही चेहरे देख
देख
सुबह शाम
वही सपाट चेहरे
भावहीन
किसी रोबोट की
तरह
बस चलायमान
कभी दर्द नहीं
छलकता
इनकी आंखों में
कभी कभी
मुंह थोड़ा फैल
जाता है
उबासी लेते हुए
कभी कभी लगता
है
जैसे मुस्करा रहे हैं
ये न बोलते
हैं
न सोचते हैं
बस चलायमान हैं
किसी साफ्टवेयर से संचालित
कभी सोचता हूं
कब तक देखना
होगा
इन मशीनी चेहरों को
क्या कभी
कोई सुबह
कोई शाम
कोई किरन
कोई हवा
भर पायेगी इनमें भी
जीवन के अंश
कि अचानक
ठहाके मार के
हंस पड़ें
ये
चीख पड़ें
जब चोट लगे
इन्हें
कभी तो हो
ऐसा
काश
आदमी फिर से
बन जाए
एक जीता जागता
इंसान!
- बृजेश नीरज
हम तो इस दुआ पर बस यही कह सकते है ... आमीन !
ReplyDeleteआज की ब्लॉग बुलेटिन आम आदमी का अंतिम भोज - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !