यूं ज़रा सी
बात पर तेरा रूठना भाता नहीं
हम जो रूठें
तो मनाने कोई भी आता नहीं
सबकी बातों के
बहुत मतलब निकलते देखे
हमारी बातों का मतलब
समझ में आता
नहीं
सुनसान हुए रास्ते जब आंधियां चलने लगीं
किससे सहारा मांगें, कोई नजर आता
नहीं
मौसम का ये
फेर है धरती
चिटकने लगी
कोई दोष आदमी
का इसमें नजर
आता नहीं
एक दूसरे का
हाथ थामे पार
कर लो ये
नदी
रेत रह गयी
इसमें पानी तो
यहां आता नहीं
हरियाली दिखती नहीं
मेरी नजर का
दोष है
सावन के अंधे
नहीं हम, देखना
आता नहीं
प्रियतम मेरा मांगता है प्रेम के
कुछ सबूत
चांद तारे आसमां
से हमें तोड़ना
आता नहीं
आसमान से गिरकर
खजूर पर अटक
गए
उम्र बीते यहीं,
जमीं पर उतरना
आता नहीं
- बृजेश नीरज
बहुत अच्छे अशआर लिखे हैं आपने!
ReplyDeleteअगर मतला भी होता तो मुकम्मल ग़ज़ल हो जाती!
आदरणीय गुरूजी,
Deleteआपके आदेशानुसार मैंने संशोधन करने का प्रयास किया है। यह मेरी गलती थी जो पोस्ट करते समय मैंने ध्यान नहीं दिया और मतला छूट गया।
कृपया देखें और अपना मार्गदर्शन प्रदान करने का कष्ट करें।
सादर!
इतनी सुन्दर ग़ज़ल शेयर करने के लिए धन्यबाद।
ReplyDeleteला-जवाब" जबर्दस्त!!
ReplyDeleteआपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी......आपको फॉलो कर रहा हूँ |
आपका बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी! प्रयास होगा कि आपको निराश न होना पड़े।
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