Thursday, 7 February 2013

सफर


यूं ही दरो-दीवार में कैद ये उम्र गुजरी
खुली आबो-हवा में चलो सफर करते हैं

रात भर जगने से बोझल हो गयीं आंखें
लेकिन नींद और ख्वाबों की बात करते हैं

पेट की खातिर शरारों पर चलता आदमी
लोग उसके करतब की तारीफ करते हैं

जो उम्मीद थी वो अब खत्म होने लगी
जाने क्यूं फिर भी हम इंतजार करते हैं

जबानें सिल रखी हैं जिन्होंने जमाने से
खाली होते ही सियासत की बात करते हैं

दिन भर घूमते थे जो खुद खुदा बनकर
रात में दरगाहों पर वो सज़दा करते हैं

इन शिकवे शिकायत से क्या हासिल
जो फासले हैं उनको कुछ कम करते हैं

जख्म हैं परों पर इरादे तो नहीं जख्मी
उड़ने की कुछ कोशिश चलिए करते हैं
                                     - बृजेश नीरज


13 comments:

  1. आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 09/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!

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  2. Good efforts need to be more modified.

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  3. जख्म है परों पर इरादे तो नहीं जख्मी...
    बहुत सुन्दर!

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  4. बहुत ही बढ़िया


    सादर

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    1. धन्यवाद!
      अपने शहरवासी की प्रशंसा का आनन्द ही कुछ और होता है।
      सादर!

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  5. खुबसूरत अभिवयक्ति....

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  6. एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
    यही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!

    कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
    http://sanjaybhaskar.blogspot.in

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    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी!

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