यूं ही दरो-दीवार
में कैद ये उम्र गुजरी
खुली आबो-हवा
में चलो सफर करते हैं
रात भर जगने
से बोझल हो गयीं आंखें
लेकिन नींद
और ख्वाबों की बात करते हैं
पेट की खातिर
शरारों पर चलता आदमी
लोग उसके करतब
की तारीफ करते हैं
जो उम्मीद थी
वो अब खत्म होने लगी
जाने क्यूं
फिर भी हम इंतजार करते हैं
जबानें सिल
रखी हैं जिन्होंने जमाने से
खाली होते ही
सियासत की बात करते हैं
दिन भर घूमते
थे जो खुद खुदा बनकर
रात में दरगाहों
पर वो सज़दा करते हैं
इन शिकवे शिकायत
से क्या हासिल
जो फासले हैं
उनको कुछ कम करते हैं
जख्म हैं परों
पर इरादे तो नहीं जख्मी
उड़ने की कुछ
कोशिश चलिए करते हैं
- बृजेश नीरज
आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 09/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
ReplyDeleteGood efforts need to be more modified.
ReplyDeleteYou may suggest modification.
DeleteThanks!
ReplyDeleteजख्म है परों पर इरादे तो नहीं जख्मी...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
धन्यवाद!
Deleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
धन्यवाद!
Deleteअपने शहरवासी की प्रशंसा का आनन्द ही कुछ और होता है।
सादर!
bahut badhiya..keep it up :)
ReplyDeleteNICE CREATION
ReplyDeleteखुबसूरत अभिवयक्ति....
ReplyDeleteएक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
ReplyDeleteयही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!
कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
http://sanjaybhaskar.blogspot.in
आपका बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी!
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