आओ सब मिलकर
खेलें एक अनोखा
खेल
तुम भी लूटो
हम भी लूटें
जनतंत्र की रेल
जनतंत्र की रेल
कि तमाशा बड़ा
अनोखा
नेता संसद में
नोच रहे एक
दूजे का झोंटा
नोचे झोंटा जोर
जोर से शोर
मचायें
लूट लिया सब
इसने कुछ बचा
न हाय
बचा न मुझको
हाय जनता की
गलती
मिलता मौका मुझे
तो जनता न
बचती
जनता न बचती
तो फिर शोर
कौन मचाता
एवरेस्ट से सागर
तक सब मेरा
हो जाता
मेरा हो जाता
देश न हाय
न किचकिच
ऐसा खेलें खेल
खतम हो रोज
की मिचमिच
- बृजेश नीरज
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (11-02-2013) के चर्चा मंच-११५२ (बदहाल लोकतन्त्रः जिम्मेदार कौन) पर भी होगी!
सूचनार्थ.. सादर!
बहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteमैं कृतज्ञ हुआ आपका आर्शीवाद पाकर।
सादर!
धारदार व्यंग..
ReplyDeleteआभार!
Deleteअच्छा है, मज़ा आया
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteफिलहाल संसद जल-मल की जेल-जेल खेल रही है.....
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने।
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह!..अच्छा लगा पढ़कर ..
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteउम्दा सोच
ReplyDeleteभावमय करते शब्दों के साथ गजब का लेखन ...आभार ।
धन्यवाद!
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