Monday, 11 February 2013

मन


नित अनन्त
अस्थिर मन

क्या खोजा क्या पाया
समझा समझाया

कभी इधर की
कभी उधर की

दिग्भ्रमित दिगन्त
बस इत उत डोला

पीपल पात जैसा छौला
हवा भांति जैसा हौला

कभी बसन्त
कभी वीराना

जाने क्या क्या दिखलाया
कहां कहां सैर कराया

मन रे मन
कितना भरमाया!
         -        बृजेश नीरज

5 comments:

  1. सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद!

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