Wednesday, 6 February 2013

सुबह नहीं हुई अभी

आज जो अराजकता फैली हुई है उसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं क्योंकि हम इस अराजकता की मुखालफत नहीं करते। इसके विरोध में कोई आवाज नहीं उठाते। हम सब सो रहे हैं गहरी नींद में, इस इंतजार में कब सुबह होगी। लेकिन सुबह तो तब होगी जब हम जगेंगे।


सुबह नहीं हुई अभी
घटाटोप अंधकार
प्रकाश की किरन नहीं

स्याह आकाश
घनघोर घटायें
माहौल को
भयावह बनाती हुई

हौले हौले चलती हवा
बदन में झुरझुरी पैदा करती
कहीं दूर
निकल जाने को आतुर

चांद सितारे
कहीं गुम हो गये
सप्तर्षि
कंदराओं में खो गये
शुक्र डूब चुके
शुभ कार्य की मनाही है

हर तरफ पसरा सन्नाटा
किसी घर से रही है
खर्राटों की आवाज

लोग सोए हैं अभी
अभी जगने में देर है
सुबह का इंतजार है

सुबह होने के बाद उठेंगे
मुर्गा बोलने से
नहीं उठते लोग अब
करते हैं
सूरज चढ़ने का इंतजार

और अभी तो
सुबह भी नहीं हुई
प्रकाश की किरन भी नहीं फूटी
बादल छाए हैं इसलिए शायद

तो अगर सुबह नहीं हुई
क्या सोते रहेंगे लोग
              & बृजेश नीरज

2 comments:

  1. सोचा की बेहतरीन पंक्तियाँ चुन के तारीफ करून ... मगर पूरी नज़्म ही शानदार है ...आपने लफ्ज़ दिए है अपने एहसास को ... दिल छु लेने वाली रचना ...

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    Replies
    1. आपका आभार! आपकी हौसला अफज़ाई से लिखने का साहस बढ़ा!

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