वक्त के मंज़र
अब बदलने लगे
हैं
होम करने से
हाथ जलने लगे
हैं
गीली हो गयीं
हवन की लकड़ियां
इसीलिए घरों में
धुएं भरने लगे
हैं
शाम तय था
होना जलसा जहां
वहीं पर लोग
मातम करने लगे
हैं
आपस में पहचान
होनी है कठिन
मिलिए तो वो
वज़ह पूछने लगे
हैं
एक रोज भूख
से मर गया
आदमी
मौत पर उसकी
बहस करने लगे
हैं
बस्ती न रही
पत्थरों का जंगल
हुआ
चलते फिरते बुत
नजर आने लगे
हैं
- बृजेश नीरज
अच्छी रचना है,अन्तिम पंक्तिया तो बहुत ही उम्दा!
ReplyDeleteअच्छी रचना है,अन्तिम पंक्तिया तो बहुत ही उम्दा!
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