Saturday, 26 January 2013

रचना - समंदर


जिसके नीचे बैठकर गुजरती थी दोपहर
उस नीम के पेड़ पर अब पत्ते नहीं रहे

मत करिए तहज़ीब--कायदे की बात
इस बस्ती के लोग अब आदम नहीं रहे

दरिया का पानी फिर से बहकने लगा
समेट ले आगोश में वो समंदर नहीं रहे

रौशन थे गली कूचे जिसकी रोशनी से
आसमां में वो माह--आफताब नहीं रहे

                                     - बृजेश नीरज

1 comment:

  1. बहुत खूबसूरत!
    गूढ़ शब्दों के साथ यथार्थ प्रस्तुत कर दिया आपने.बहुत अच्छी लगी ये रचना.

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