आजकल के समय
में जब भौतिकता चरम पर है
और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की
होड़ मची है,
उसमें व्यक्ति के पास
समय और संवेदना दोनों की कमी
होती जा रही
है। सड़क पर
पड़े-पड़े आदमी दम
तोड़ देता है
लेकिन आसपास इकट्ठा भीड़ उसे अस्पताल पहुंचाने की जहमत
नहीं उठाती। लोग इसका
कारण पुलिस का
व्यवहार बताते हैं
लेकिन वास्तविकता यह है
कि आदमी की
संवेदना मर चुकी
है। उसे उस
अपरिचित का दर्द
महसूस नहीं होता।
आखिर हम अपने
किसी परिचित के लिए
श्रम करते हैं
कि नहीं। तब
पुलिस का डर
क्यों नहीं काट
खाता।
सवाल संवेदना
का ही है।
संवेदना मर चुकी
है। एक 'स्व'
जिन्दा है जिसे
हम ओढ़ते भी
हैं और बिछाते भी हैं। इस
स्व को और
बड़ा करने की
जद्दोजहद में दिन
रात भागते रहते
हैं। इस माहौल
में जो विधा
सबसे अधिक प्रभावित हुई है वह
है साहित्य। आज वास्तविक साहित्यकार भी कम
हैं और साहित्य के कद्रदान भी। आज
जो साहित्य सबसे अधिक
प्रचलित है वह
फिल्मी साहित्य और सोशल
नेटवर्किंग साइट्स पर फ्लर्ट करते लोगों के
बीच शेयर करने
और टैग किया
जाने वाला साहित्य। वास्तविक साहित्यिक विधाओं को पढ़ने
और समझने का
लोगों के पास
समय शेष नहीं
बचा। महादेवी वर्मा, निराला, पंत, फिराक
गोरखपुरी, कृष्ण बिहारी नूर,
दुष्यंत कुमार कितने
लोगों को याद
हैं। सलमान रश्दी, तस्लीमा नसरीन, खुशवंत सिंह, उदय
प्रकाश, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को कितने लोग
जानते हैं।
इस फेसबुकिया
संस्कृति में जब
सतही बातें, सतही कमेंट़्स और अधनंगी तस्वीरें शेयर और
टैग करने में
खाली समय व्यतीत हो जाता है
तो गंभीर साहित्यिक चिंतन का समय
शेष कहां बचता
है। टी वी
पर साहित्य के नाम
पर दिखाए जाने
वाले कार्यक्रम में एक
घटिया जोक पर
गढ़ी कविता पर
मुस्कराने वाले दर्शक
से नार्गाजुन की कविता
को समझने की
उम्मीद भी नहीं
की जानी चाहिए। इस मानसिकता का प्रभाव साहित्य पर साफ
झलकता है।
साहित्यकार आज
सिकुड़ सिमट गया
है या फिर
आज के माहौल
का कलेवर ओढ़कर
बाजार में खड़ा
हो गया है।
जिसे पैकेजिंग की कला
मालूम है वह
बिक रहा है
और जो इस
हुनर से वंचित
है कहीं घर
के कोने में
धूल फांक रहा
है। जो बाजार
में हैं वो
ताकतवर हो गये
हैं और बहुत
कुछ साहित्य की दिशा
और दशा को
निर्धारित करने का
काम कर रहे
हैं। यहां भी
'स्व' का प्रभाव आ गया। नए
रचनाकार के पास
दो ही विकल्प हैं या तो
मठाधीशों की शरण
में जाए या
फिर स्वान्तः सुखाय के
लिए लिखता रहे।
कुल मिलाकर
साहित्य का बचा
खुचा परिक्षेत्र लामबंदी का शिकार
है। इस लाम
के मालिक किसी
माफिया की ही
तरह व्यवहार करते हैं।
किसी भी अच्छे
और नामी प्रकाशन पर ये काबिज
हैं। वहां से
प्रकाशित वही होगा
जो ये चाहेंगे। ऐसे में नया
रचनाकार कहां जाए।
नये नाम द्वारा भेजी गयी रचना
किसी भी प्रकाशन में आसानी से
स्थान नहीं बना
पा पाती। संभवतः उसे पढ़ा भी
नहीं जाता। कोरे
'धन्यवाद' के साथ
रचना वापस कर
दी जाती है।
रचनाकार को समझ
नहीं आता कि
वह रचना अच्छी
नहीं थी या
फिर रचनाकार का नाम
अच्छा नहीं था।
पूरे प्रकाशन क्षेत्र पर सत्ता
के मठाधीश और तथा
कथित बड़े नाम
काबिज हैं। पूरे
माहौल को तथा
साहित्य में आयी
गिरावट के लिए
यह लामबंदी भी बहुत
हद तक उत्तरदायी है।
इन सबसे इतर कलम
की प्रशंसा की जगह
आज कलम पर
नजर रखने का
काम हो रहा
है। साहित्य और कला
को एक साम्प्रदायिक और सतही मानसिकता वाली सोच की
सेंशरशिप का भी
सामना करना पड़
रहा है। लिखते
समय भी ध्यान
रखना होता है
कि क्या लिखें। कब किसे क्या
बात बुरी लग
जाए कहा नहीं
जा सकता। कभी
सत्ता आहत हो
जाती है तो
कभी समाज। फिर
शुरू हो जाता
है दर दर
का भटकाव।
साहित्य की अपनी एक
मांग होती है
खुलापन और स्वतंत्रता और दोनों ही
आज के समय
में उपलब्ध नहीं है।
ग्राहक नदारद हैं।
जो शेष बचे
भी हैं उन्हें वही पढ़ने को
मिल रहा है
जो उन्हें परोसा जा
रहा है। नए
रचनाकार, नयी सोच,
नए प्रयोग, नई विधा
को पनपने का
मौका कम ही
मिल पा रहा
है। ऐसे में
कुछ भी नया
अधिकांशतः अपने संघर्ष में ही दम
तोड़ देता है।
वैसे सब कुछ बुरा
ही बुरा हो
ऐसा भी नहीं
है। साहित्य की अवरूद्ध धारा को प्रवाह देने के कुछ
बहुत अच्छे प्रयास भी हो रहे
हैं। नेटवर्किंग साइट्स पर भी
बहुत से लोग
साहित्य की टूटी
कड़ियों को पिरोने में लगे हैं।
बहुत से नए
रचनाकारों को इससे
बल मिला है।
नए अवसर मिले
हैं। बस, जरूरत
है इन प्रयासों को और मजबूत
करने की, और
बल प्रदान करने की
जिससे साहित्य की धारा
फिर निर्बाध गति से
नये नये रूप
लेती, लहराती, बल खाती
आगे बढ़ सके।
- बृजेश नीरज
strong arguments sir
ReplyDeleteI think it is a situation.
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