Monday, 28 January 2013

कान्हा


ऐसा कर दो कि तुम
नयनों में यूं बस जाओ
जो कुछ भी देखूं मैं तो
तुम ही तुम नजर आओ

धरती आकाश दूर क्षितिज में
जैसे आलिंगन करते हैं
मैं नदिया बन जाऊं तो
तुम समंदर बन जाओ

वन-वन भटके राम विरह में
व्यथित से, अकुलाए से
इन पुष्पों पौधों के पीछे
सीता मुझको दिख जाओ

वैसी सूरत दिखेगी उसको
जैसी जिसकी सोच है
मैं अपने प्रियतम को ढूंढूं
किसी को ईश्वर दिख जाओ

अब तो देर भई रे कान्हा
इतना तुम तड़पाओ
लुका छिपी का खेल खेलो
अब तो दरस दिखा जाओ
                   - बृजेश नीरज

9 comments:

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  2. http://paricharcha-rashmiprabha.blogspot.in/2013/01/7.html

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  3. बहुत सुन्दर....
    कान्हा को आना ही होगा....

    अनु

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  4. mere kanha sabki sunte hai....apki bhi jaroor sunegay...bahut sundar rachna

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  5. शैतान है कान्हा!
    पर भाव को नही ठुकराएंगे,आएगें और आपकी लेखनी और जानदार बनाएंगे।

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