Tuesday 29 January 2013

जहां


चाहे कोई सितम हो या हो जाए हादसा
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं जुबां

तू जो इतराता फिर रहा यूं बन ठनकर
तेरे तसव्वुर में है कोई और बेहतर जहां

चिंगारियों ने पैरहन में कई छेद कर दिए
फूंकने पर कोयले फिर भी देते रहे धुआं

सबा की दस्तक भी अब अखरने लगी
लोगों ने बंद कर लीं घर की खिड़कियां

आंखों में सुर्खियां जो इतनी देखते हो
रात भर ये कहीं बैठकर खेलते रहे जुआं
                   - बृजेश नीरज
तसव्वुर - अनुध्यान, ध्यान, विचार, ख्याल, कल्पना, तखैयुल
पैरहन - कुर्ता, कमीज, वस्त्र, वसन, लिबास



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