आजकल आजादी
का दौर है। इन्टरनेट ने हमें आजादी प्रदान कर दी है कुछ भी बोलने की, कुछ भी लिखने
की, कुछ भी दिखाने की और अब तो कुछ भी छापने की। यह आजादी मर्यादाओं को लांघकर उच्छृंखलता
की सीमाओं को भी पार कर चुकी है। साहित्य का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा।
इन्टरनेट ने
स्वयं प्रकाशित करने (Self-publishing) की क्षमता व्यक्ति को दे दी है। किसी
साइट पर अपना एकाउंट या ब्लाग बनाइए और बस लिख मारिए। आप स्वयं मालिक हैं कलम के भी
और छापाघर के भी। जो मन में आया लिख दिया, घर का हिसाब, किसी किताब के निबन्ध को तोड़कर
बनायी गयी कविता, कुछ भी और पोस्ट कर दीजिए अपने साइट पर। बस रचनाकार बन गए आप। साहित्य
के इतिहास में आपका नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया। माल अपना, दुकान अपनी,
ग्राहक की चिन्ता नहीं। आप की इच्छा हो तो पढ़िए नहीं तो क्या बिगड़ना। साहित्यकार तो
हो ही गए।
इस समय इण्टरनेट
पर ब्लाग्स की बाढ़ सी आयी है। इनमें साहित्यिक साइट्स की भी कमी नहीं है। कुछ प्रतिष्ठित
प्रतिष्ठान हैं जहां किसी नए नाम का छपना आसान नहीं। कुछ साइट्स हैं जहां लामबंदी चल
रही है। कुछ पर मठाधीश काबिज हैं। कुछ साइट्स ऐसे भी हैं जो लगातार नए प्रयोगों, नए
चेहरों को स्थान दे रहे हैं लेकिन ऐसे संस्थानों की संख्या अभी भी सीमित ही है। परन्तु
उनके प्रयास बेशक सराहनीय हैं।
इन साइटस ने
जहां भूले बिसरे साहित्यकारों को आम लोगों की पहुंच तक ला दिया है वहीं नये चेहरों
व नए प्रयोगों को उभरने का भी अवसर दिया है। हां, यह अवश्य है कि इसका फायदा ऐसे लोग
भी उठा रहे हैं जिन्होंने साहित्य लेखन को शगल समझ रखा है। उनकी नजरों में लेखन बस
कलम उठाकर लिखना भर है। आपको ऐसे दमघोंटू साहित्यकार यहां वहां बहुत से साइटस पर मिल
जाएंगे। कुछ संस्थानों ने तो बकायदा ऐसे दमघोंटुओं को प्रश्रय और बढ़ावा दे रखा है।
ऐसे साहित्य को पढ़ने के बाद व्यक्ति को वितृष्णा हो जाए तो आश्चर्य नहीं।
प्रत्येक रचनाकार
में लेखन के विकास की एक प्रक्रिया होती है। किसी भी रचनाकार का लेखन अपनी प्रारम्भिक
अवस्था से ही पूर्णतया परिपक्व नहीं होता वरन उसकी परिपक्वता में, अपने चरमोत्कार्ष
पर पहुंचने में समय लगता है। प्रेमचंद के साहित्य मे यह विकास स्पष्ट परिलक्षित होता
है। परन्तु यह बात भी समझनी होगी कि हर व्यक्ति रचनाकार नहीं हो सकता जैसे हर व्यक्ति
गायक नहीं हो सकता।
इण्टरनेट की
स्वतंत्रता ने ऐसे व्यक्तियों को सुअवसर प्रदान किया है जिनमें साहित्यिक लक्षण बिलकुल
भी नहीं हैं लेकिन वे लिख रहे हैं और सीना ताने कई जगह छप भी रहे हैं। अब ऐसे लोग साहित्य
का कितना भला करेंगे यह तो समय ही बताएगा। हो सकता है कल को नए तरह के प्रेमचंद और
शेक्सपियर जन्म लेने लगें। कुछ भी हो, इन्टरनेट की यह नई कलम कुछ तो गुल खिलाएगी ही।
- बृजेश नीरज
क्यों
ReplyDeleteक्या दुश्मनी है
लोगों से
आपको
वे ही तो आपको
नया कुछ लिखने की वजह देते हैं
विषय देतें है
सराहो उन्हें
प्रेरित करो उनको
बिलकुल वैसा ही
जैसा अभी कुछ देर पहले
मुझे किया है आपने
सादर
यशोदा
जो लिख रहे हैं उन पर ये टिप्पणी मैंने नहीं की है खासतौर पर यहां। बहुत सी साइट्स हैं जहां बहुत ऊटपटांग लिखा जा रहा है और प्रकाशित हो रहा है। यह टिप्पणी उन पर है। यहां मेरा मकसद किसी के लेखन पर उंगली उठाना नहीं क्योंकि मैं खुद एक नौसिखिया ही हूं। अभी सीख ही रहा हूं लिखना लेकिन साहित्य के नाम पर कूड़ा तो नहीं बर्दाश्त किया जा सकता।
Deleteसादर!
जब तक रद्दी रचना नहीं पढ़ोगे
Deleteये अच्छी रचना है कैसे जानोगे
पढ़िये सब, मोती रख लीजिये
कूड़ा-करकट कौव्वे को दीजिये
आपकी बात सिर आंखों पर। लेख में कही अपनी बात वापस लेता हूं।
Deleteसादर!
'साहित्यिक लक्षण' से आपका मतलब?
ReplyDeleteवैसे साहित्य की सार्थकता किस तरह के साहित्य से है? कृपया अपने विचार से अवगत कराएं.
'साहित्यिक लक्षण' से आपका मतलब?
ReplyDeleteवैसे साहित्य की सार्थकता किस तरह के साहित्य से है? कृपया अपने विचार से अवगत कराएं.
क्या कुछ भी लिख देना साहित्य है, किसी वाक्य को तोड़कर लिख देना कविता है? यह स्वयं का विवेचन है कि आप किसे साहित्य मानते हैं? जरा सोचिए, साहित्यिक रचना किसे स्वीकार करेंगे आप? इस प्रश्न का कोई मतलब नहीं कि साहित्य की सार्थकता किस तरह के साहित्य से है? वह कुछ भी जो साहित्य की श्रेणी में है सार्थक ही होता है? साहित्य तो परमानंद है, वह आनंद भी देता है, क्लेष मिटाता है, समाज को दिशा भी देता है, दिल के गुबार भी दिखाता है। साहित्य को सार्थकता की श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता।
Deleteकिसी साहित्यिक रचना का पसंद आना या न आना अलग बात है लेकिन कुछ भी लिख दिया जाना साहित्य नहीं ही है। वैसे मैंने यह मसला यशोदा जी की आपत्तियों के बाद बंद कर दिया था परन्तु आपने फिर उभार दिया।