अक्सर ऐसा होता
है
कुछ लिखने बैठता
हूं
लिखने को कुछ
नहीं होता
मन शान्त
मस्तिष्क कोरा
मात्र एक हृदय
स्पंदन करता।
लिखने को होता
हूं
तो कुछ लिख
ही जाता है
कुछ न होते
हुए भी
कुछ चाहा अनचाहा
कुछ उपदेश
कुछ संदेश
कुछ स्वीकार्य
कुछ अस्वीकार्य
जीवन की तरह।
इस लिखने में
भी
कुछ प्रयास है
कुछ स्वतः फूर्त
कुछ अनायास आ जाता
दुख की तरह।
लिखना भी प्रयोजन ही है
आयोजन है
मजबूरी है
विकल्पहीन
संघर्ष की तरह।
लिख चुकने के
बाद भी
प्रतीक्षा होती है
किसी टिप्पणी की
आलोचना की
प्रशंसा की
सुख की तरह।
यही ताकत है
लेखक की
एक प्रशंसा
उकसाती है
फिर लिखने को
एक अनदेखी
तोड़ देती है
कलम
कुंद कर देती
है
धार
चाहत की तरह।
इस जुड़ने टूटने
के बीच
इस प्रशंसा अनदेखी के मध्य
कलम चलती है
कभी रेंगती कभी दौड़ती
कभी हंसती कभी
रोती
कभी खिलखिलाती
कभी दम तोड़ती
आम आदमी की
तरह।
लेखक आम आदमी
ही तो
आम आदमी ही
तो लेखक
अपने जीवन का
सुख दुख का
एक कहानी गढ़ी
जा रही
बिना कहे
बिना सुने
बिना किसी प्रशंसा के
संघर्षों के बीच।
- बृजेश नीरज
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