गूंगे और बहरों
की बस्ती में
शोर कैसे ये
होने लगे हैं
ढोल और ताशे
बजाकर
तमाशे रोज होने
लगे हैं
सफ़ीने ढूंढते हैं ठौर
कोई
समंदर बेचैन होने
लगे हैं
अहले मकतब भी
हैं परेशां
कहां से आयत
सुनाने लगे हैं
माहौल का खौफ
इतना कि
शायर जुबां सिलने
लगे हैं
चलन कुछ ऐसा
हो चला
आदमी को आदमी
खाने लगे हैं
-
बृजेश नीरज
सफीनः - नौका, नाव, कश्ती
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteThanks!
Deleteगहन प्रस्तुति की है आपने!
ReplyDeleteअच्छी कविता है.
गहन प्रस्तुति की है आपने!
ReplyDeleteअच्छी कविता है.
गहन प्रस्तुति की है आपने!
ReplyDeleteअच्छी कविता है.