Sunday, 27 January 2013

तमाशा


गूंगे और बहरों की बस्ती में
शोर कैसे ये होने लगे हैं

ढोल और ताशे बजाकर
तमाशे रोज होने लगे हैं

सफ़ीने ढूंढते हैं ठौर कोई
समंदर बेचैन होने लगे हैं

अहले मकतब भी हैं परेशां
कहां से आयत सुनाने लगे हैं

माहौल का खौफ इतना कि
शायर जुबां सिलने लगे हैं

चलन कुछ ऐसा हो चला
आदमी को आदमी खाने लगे हैं

            -        बृजेश नीरज
सफीनः - नौका, नाव, कश्ती

5 comments:

  1. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  2. गहन प्रस्तुति की है आपने!
    अच्छी कविता है.

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  3. गहन प्रस्तुति की है आपने!
    अच्छी कविता है.

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  4. गहन प्रस्तुति की है आपने!
    अच्छी कविता है.

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