Monday, 21 January 2013

रचना - फासला


यार मेरा बिछड़ गया
दयार मेरा उजड़ गया
उम्र यूं ही गुजर गयी
वक्त वहीं ठहर गया

लोग कयासों में रहे
मैं हादसों में जिया
जो भी था उस शहर
हालात पर हंसकर गया

सुब्हो-शाम की क्या खबर
धूप-छांव की क्या फिकर
रूसवाइयों में कैद हूं
कोई बदनाम मुझको कर गया

वो माहौल कुछ और था
अब मिजाज कुछ और है
दिलों का ये फासला
कई जख्म देकर गया

मलाल कोई तुमसे है
शिकवे की कोई जगह
ये उम्र जिसके नाम थी
वो दर्द नाम कर गया

क्षितिज में ये मिलन
पुरवाई में भी चुभन
परिंदों का घर लौटना
ये समां मुझे कुरेद गया

            - बृजेश नीरज

3 comments:

  1. क्षितिज मे ये मिलन...
    अन्तिम पंक्तियां बहुत सुन्दर हैं

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  2. क्षितिज मे ये मिलन...
    अन्तिम पंक्तियां बहुत सुन्दर हैं

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