Monday, 21 January 2013

लेख - 2014 का कांग्रेस चिंतन


     आखिर, वो हो ही गया जिसके बारे में लोग कयास लगा रहे थे। राहुल उपाध्यक्ष घोषित हो गये। साथ ही, यह भी साफ कर दिया गया कि 2014 का चुनाव कांग्रेस राहुल के नेतृत्व में लड़ेगी। कांग्रेस के चिंतन ने उसे वह घोषणा करने का साहस दिया जो वह पिछले दस साल से नहीं कर पा रही थी।
     आज की तारीख में जब कांग्रेस इस देश की जनता की नजरों में हाशिए पर चली गयी हो, ऐसे में कांग्रेस के पास यह कदम उठाने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा भी नहीं था। आम आदमी के पेट को उद्योगपतियों के पास गिरवी रख चुकी और देश की साख को बट्टा लगा चुकी कांग्रेस के पास चेहरा बदलने के अलावा कोई दूसरा तरीका जनता के बीच जाने का नहीं बचा था।
     राहुल को जिस राह पर धकेल दिया गया है वह रास्ता इतना आसान नहीं जितना कांग्रेस समझ रही होगी। चाटुकारों की फौज से घिरी कांग्रेस की समझ इतनी कुंद हो चुकी है कि वह 2014 में आने वाले खतरे का अंदाजा नहीं लगा पा रही है। राहुल का अब तक का रिकार्ड बताता है कि उनमें कुछ कर गुजरने की क्षमता भले हो लेकिन मंशा तो बिलकुल नहीं है। वो जिस ढीले ढाले रूप में अकसर जनता के बीच दिखते हैं उससे जनता को उनसे कोई उम्मीद बंधती नहीं दिखती। उत्तर प्रदेश और गुजरात के चुनाव में उनकी फजीहत हो ही चुकी है।
     राहुल ने जिस अंदाज में कांग्रेस की इकाइयों के चुनाव कराने के प्रयास किए थे उससे उम्मीद बंधी थी कि संभवतः पार्टी के अंदर वे लोकतंत्र की स्थापना करें लेकिन ये उम्मीद भी अब बेकार साबित होने लगी है। जिस तरह से उन्हें उपाध्यक्ष घोषित किया गया और उसे उन्होंने स्वीकार किया, उससे तो ये उम्मीद बिलकुल ही समाप्त हो गयी। यह प्रक्रिया दर्शाती है कि राहुल में कड़े फैसले लेने की क्षमता बिलकुल ही नहीं है। जरा कल्पना करें कि चिंतन शिविर में घोषणा हुई होती कि राहुल पार्टी के उपाध्यक्ष बनाए जाते हैं और राहुल मंच से यह कहते सुने जाते कि 'नहीं, ये प्रक्रिया गलत है। कोई भी पदाधिकारी थोपा नहीं जा सकता। पार्टी लोकतांत्रिक तरीके से ही चलाई जानी चाहिए। उपाध्यक्ष पद का चुनाव होगा।' इसका जनता में क्या संदेश जाता। अफसोस, राहुल ने ऐसा कुछ नहीं किया। वे बेचारे अपनी मां के आंसुओं के बीच बेबस नजर आए।
     राहुल इस देश के एक ऐसे राजनैतिक चेहरे हैं जिनको प्रचारित खूब किया गया, अपनी पार्टी की तरफ से सराहा खूब गया, उनको कुछ इस तरह से पेश किया गया मानो गांधी परिवार का यह चश्मो&चिराग बोतल से बाहर आते ही किसी जिन्न की तरह सब कुछ बदल देगा, लोगों की कठिनाइयां समाप्त हो जाएंगी, आंख से आंसू बहने बंद हो जाएंगे लेकिन जब-जब वो मैदान में उतरे फिसड्डी साबित हुए, सारी बातें प्रवंचना सिद्ध हुईं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि राहुल में वो करिश्मा ही मौजूद नहीं जो उन्हें एक लोकप्रिय राजनेता की तरह स्थापित कर सके।
     कांग्रेस के साथ हमेशा यह एक सकारात्मक पहलू रहा कि वह स्वतंत्रता संग्राम काल की पार्टी है इसलिए उसका आधार देश के हर हिस्से में फैला है लेकिन वर्तमान काल में पार्टी के इस व्यापक फैलाव को सहेजने वाला कोई नेता पार्टी में नजर नहीं आता। यह कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी रही है कि स्वतंत्रता के तत्काल बाद नेहरू के हाथों थमाई गई कमान को पार्टी अभी भी उनके वंशजों के भरोसे ही रखना चाहती है। पार्टी जब भी संकट में होती है उस परिवार की ओर ही ताकती है लेकिन पार्टी की नेहरू-गांधी परिवार पर निर्भरता ही उसके लिए सबसे बड़ा खतरा साबित हो रही है। आज का संकट गंभीर हो चला है। पार्टी की साख उसकी कारगुजारियों की वजह से बुरी तरह गिरी है लेकिन ऐसे में जिस बैसाखी का सहारा लेकर 2014 की वैतरणी पार करने की लालसा पार्टी ने लगा रखी है उसकी मजबूती को लेकर ही सबसे ज्यादा संदेह है।
     खैर, कांग्रेस का चिंतन जारी है। आम आदमी, मिडिल क्लास को पार्टी से जोड़ने की कवायद शुरू हो गयी है। गैस सिलिण्डरों की संख्या 9 कर दी गयी है। आगे 2014 तक के लिए कुछ और लोक लुभावनी स्कीमें लागू की जाएंगी। राहुल कुछ जादुई करिश्मे करते दिखेंगे। पार्टी महंगाई जैसे मुद्दे पर जनता के जख्मों पर मरहम रखने का प्रयास करेगी। आम आदमी को सब्जबाग दिखाकर फिर से भ्रमित कर देने की एक जोरदार कोशिश कांग्रेस की तरफ से शुरू हो गयी है। देखने वाली बात यह होगी कि यह देश इस सब्जबाग के जाल में फंसता है या बच निकलता है। देश और कांग्रेस दोनों के लिए यह परीक्षा की घड़ी है।
                                       - बृजेश नीरज



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