Wednesday, 16 December 2015

साहित्यकार

एक दिन
यूँ ही बैठे-बैठे
कोई कविता पढ़ते-पढ़ते
जी मचला
दिल हुमसा
उठाई कलम
लिख डाली मैंने भी
एक कविता

लोगों को पढ़ाई
अपनी नई कविता
बहुत तारीफ हुई
वाह वाह मिली

तब से
मैं साहित्यकार हो गया
बंद कर दीं
औरों की रचनाएँ पढ़नी

अब किसी और की
रचना की तारीफ नहीं करता
सब लगते हैं मुझे
गौढ़
मेरे कद से छोटे

मैंने समझा नहीं
यह रहस्य
साहित्य के महासागर में
लहरों की गिनती नहीं होती
बूँद पड़ जाए अलग

उसकी कीमत नहीं होती

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