Thursday 9 April 2015

कुछ इधर-उधर की

          "अपने प्रेम की परिधि हमें इतनी बढ़ानी चाहिए कि उसमे गाँव आ जाएँ, गाँव से नगर, नगर से प्रान्त, यों हमारे प्रेम का विस्तार सम्पूर्ण संसार तक होना चाहिए।"

                                                      -बापू

          ''कोई भी जो इतिहास की कुछ जानकारी रखता है वो ये जानता है कि महान सामाजिक बदलाव बिना महिलाओं के उत्थान के असंभव है. सामाजिक प्रगति महिलाओं की सामजिक स्थिति, जिसमें बुरी दिखने वाली महिलाएँ भी शामिल हैं; को देखकर मापी जा सकती है''
                                                    - मार्क्स 

मेरी हक़ीक़त
1. ''लोग भले ही मेरे काम को जादुई यथार्थवाद के नाम पर फंतासियों की तरह देखते हैं, पर मैंने एक भी वाक्य ऐसा नहीं लिखा, जिसमें मेरी अपनी हक़ीक़त का अंश न हो।''
2. "मैं किसी साहित्य और आलोचक और अनजाने लोगों को ध्यान में रखकर नहीं लिखता। सिर्फ़ इसलिए लिखता हूँ कि मेरे दोस्त मुझसे और ज़्यादा मुहब्बत करें।
3. ''साहित्य के लिए ज़मीनी सच से जुड़े रहना ज़रूरी है, जो पत्रकारिता मुमकिन करवाती है।''
4. ''मेरा जो लिखा है वह सिर पर रखे नहीं, दिल पर रखे बोझ की तरह है।"
5. ''जहाँ एक ग़लत तथ्य पत्रकारिता की विश्वसनीयता दाँव पर लगा देता है, वहीं एक अकेला सच साहित्य को खड़े होने की ज़मीन देता है।''
6. ''अगर आप लोगों से ये कहें कि हाथी आसमान में उड़ रहे थे, तो कोई आप पर भरोसा नहीं करेगा. पर अगर आप ये कहें कि आसमान में चार सौ पच्चीस हाथी उड़ रहे हैं, तो लोग शायद आपकी बात मान लें।''
                                                     - मार्केज़

          लोकवादी साहित्य ही जनापेक्षी अथवा प्रतिरोधी साहित्य का प्रतिमान हो सकता है. प्रतिरोध व द्वन्द के अभाव में सर्जना असंभव है. सुविधा किसी भी विधा की मृत्यु का कारण है, जबकि प्रतिरोध में निरंतर बेहतर करते जाने का संकल्प निहित है. वस्तुतः जीवन संघर्ष से उपजा साहित्य ही सर्वव्यापी हो सकता है.
                                              -        सिद्धार्थ शंकर राय 

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