Tuesday, 16 December 2014

दोहे

मानव तन तुझको मिला, काहे को इतराय।
यह तन माटी से बना, माटी में मिल जाय।

बागों में चंपा खिला, भ्रमर रहा मंडराय!
रूप निहारे दूर से, पास नहीं वह जाय!!

पाती लिखन जो मैं गई, नहि कलम नहि दवात।
असुअन पाती भीज गय, कहि दीन्ही सब बात।।

छंद ही छंद है यहाँ, छंद बिना नहि पूछ।
छंद कहे तो ठीक है, छंद बिना सब छूछ।।

तुम यदि हो नए यहाँ, इतराओ न इतना।
पीठ न थपथपाएँगे, चाहे करो जितना।।
                        
शत्रु की घुसपैठ हुई, सोती है सरकार।
दो फौजी के सिर कटे, दिया सरब को मार।।

दुखिया सब संसार है, सुख ढूँढन को जाय।
दूजों का जो दुख हरे, सुख चल के खुद आय।।

अपना कष्ट बिसारि के, औरों की सुधि लेय।

नहीं रीति ऐसी रही, अपनी अपनी खेय।।

No comments:

Post a Comment

कृपया ध्यान दें

इस ब्लाग पर प्रकाशित किसी भी रचना का रचनाकार/ ब्लागर की अनुमति के बिना पुनः प्रकाशन, नकल करना अथवा किसी भी अन्य प्रकार का दुरूपयोग प्रतिबंधित है।

ब्लागर