Sunday, 7 September 2014

राम! कहाँ हो!



कैकेयी के मोह को
पुष्ट करता
मंथरा की
कुटिल चाटुकारिता का पोषण

आसक्ति में कमजोर होते दशरथ
फिर विवश हैं
मर्यादा के निर्वासन को

बल के दंभ में आतुर
ताड़का नष्ट करती है
जीवन-तप 
सुरसा निगलना चाहती है
श्रम-साधना
एक बार फिर

धन-शक्ति के मद में चूर
रावण के सिर बढ़ते ही जा रहे हैं

आसुरी प्रवृत्तियाँ
प्रजननशील हैं

समय हतप्रभ
धर्म ठगा सा है आज फिर


राम! तुम कहाँ हो?
- बृजेश नीरज 
(कविता संग्रह 'कोहरा सूरज धूप' से)

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