Wednesday, 24 September 2014

आशा पाण्डेय ओझा की ‘एक कोशिश रौशनी की ओर’

       
एक रचनाकार का ह्रदय बहुत संवेदनशील होता है. जीवन की अनुभूतियाँ उसके मन पर अंकित होती रहती हैं और रचना करते समय यही अनुभूतियाँ उभरकर आकार लेती हैं. आशा पाण्डेय ओझा की पुस्तक एक कोशिश रोशनी की ओर ऐसी ही अनुभूतियों का संकलन है.
       इस संकलन में शामिल रचनाओं की भाषा सरल है. इनमें क्लिष्ट शब्दों का मोह नहीं दिखता. सीधे, सपाट लहजे में, बोलचाल की भाषा में कही गयी बात सीधे पाठक तक पहुँचती है. यही कारण है कि जब वे इश्वर से प्रार्थना करती हैं तो उनकी सरलता सहज ही शब्द पा जाती है-

आत्मा रहे मेरी गीता सी पावन
काया मेरी वेद कुरान हो
सादगी रहे मेरे जीवन का हिस्सा
मुझको जरा न अभिमान हो

वहीं माँ के प्रति उनकी श्रद्धा कुछ इस तरह से व्यक्त होती है-

माँ तुम ममता का मूर्त रूप
तुम सतरंगी स्नेह-आँचल

       इस संकलन में शामिल रचनाओं को विधा के नाम पर वर्गीकृत करना कठिन है. भाव और विचार को प्रमुखता देने में शिल्प का मोह कहीं पीछे छूट गया है. बिम्बों या किसी लाग-लपेट के बिना उन्होंने अपनी बात सीधे रखी है. अपने जीवन, समाज और आस-पास के परिदृश्य से एकत्रित अनुभूतियों को कवियत्री इन रचनाओं में पूरी तरह जीती हैं.
समाज में व्याप्त अव्यवस्था और संवेदनहीनता से आहत कवियत्री का मन रह-रहकर सामाजिक कुरीतियों पर चोट करता दिखता है.

वो नंगे भूखे जिस्म वो पथराई आँखें
पूछ रहे हैं मुझसे ये दुनिया किसने बनायी?

संवेदनहीनता पर वो इतनी विचलित हैं कि बरबस कह उठती हैं-

ये सुलगते मंज़र ये संवेदनाओं की ख़ामोशी
वाकई मैं हैरान हूँ क्यूंकि वक्त हैरानी का है

और उनकी ये हैरानी इन्सान की हैरानी बनकर अव्यवस्था और मूल्यों के पतन की परतें खोलती उनकी रचनाओं में मुखरित हुई है.

हर इंसान है आज अहिल्या
है राम कहाँ जो उद्धार करे

       आमो-खास के अंतर पर प्रश्न-चिन्ह लगाती उनकी रचनाओं में सर्वहारा वर्ग के मन का प्रश्न बहुत ही प्रमुखता से जगह पाता है.

'कुदरत नहीं करती जब कोई अंतर
फिर क्यों हम-तुम एक समान नहीं'

सामाजिक विद्रूपताओं के प्रति उनकी खिन्नता बहुत स्पष्टता से व्यक्त होती है-

वे सर पर मैला ढोते हैं
हम मन में मैला ढोते हैं

आदमियत में आती गिरावट बहुत बारीकी से इनकी रचना में उभरकर आती है. एक बानगी देखिये-

सागर थे जो सूख गए
बचे रेत के टीले लोग

वर्तमान परिदृश्य की भयावता इन शब्दों में व्यक्त हुई है-

देख लिया जो शीशा इक दिन अनजाने में
खुद से ही डर जायेगा आदमी

       आम आदमी या सर्वहारा का दर्द उनके मन में इस कदर रचा-बसा है कि उसकी कराह उनकी लेखनी में स्पष्ट सुनाई देती है.

रातों को जब मेरे घर में रौशनी जगमगाने लगती है
जाने क्यों अँधेरे में डूबी वो बस्ती याद आने लगती है

समाजवाद की अवधारणा कितने सही शब्द पायी है यहाँ- 

एक ऐसा स्वर्णिम सबेरा होगा
फिर न कहीं कोई अँधेरा होगा

उनकी कल्पनों में एक ऐसी दुनिया है जहाँ कोई विवाद न हो, जहाँ सिर्फ अमन और चैन हो-

मिटा दो युद्ध विध्वंस तो बड़ा उपकार हो जाये
इस धरती से ख़त्म सरहदों की दीवार हो जाये
मिट जाये जात-पात, दुनिया एक परिवार हो जाये
सचमुच जन्नत कहीं है, तो जमीं पे साकार हो जाये

       इनकी रचनाओं में प्रकृति चित्रण ऐसे अनोखे सरस अंदाज़ में है कि मन प्राकृतिक सौन्दर्य से गदगद हो जाता है.

कस्तूरी हुई गुलाब की सांसें
केवड़ा, पलाश करे श्रंगार
छोटे ही गिर जाये पात लजीले
इठलाती-मदमाती सी बयार

       पुस्तक की प्रूफ रीडिंग उच्च कोटि की है. अच्छी प्रिंटिंग और आकर्षक प्रस्तुतीकरण के लिए प्रकाशक बधाई के पात्र हैं.

पुस्तक का नाम- एक कोशिश रौशनी की ओर
कवियत्री- श्रीमती आशा पाण्डेय ओझा
प्रकाशक- अम्बुतोष प्रकाशन
मूल्य- १२० रुपये

                                            -        बृजेश नीरज 

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