सब कुछ सहने और
कुछ भी न कहने की प्रवृत्ति उस आत्महन्ता मौन तक ले जाती है जो व्यवस्था के
कांइयेपन को ताकत देता है. इस निरीहता को छोड़कर आवाज उठाने और खडे़ होने की
प्रेरणा भी कविता देती है. प्रतिकार से दूर रहने वाला आम आदमी अपनी सीमाओं में ही
घिरा रहता है. बृजेश
नीरज के
शब्दों में--
’छत को देखते
नापता है आकाश
कमरे की फ़र्श के सहारे
भांपता है धारती का व्यास
देखा है उसने
ताजमहल
और अमरीका भी
तस्वींरो में’'
इस यथास्थिति के
खिलाफ़ बृजेश
नीरज का
कवि प्रेरित करता है--
’लेकिन चीखो
फ़िर
पूरी ताकत लगाकर....
लगे कि
जिन्दा हो.'
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-- गुलाब सिंह
(प्रसिद्द नवगीतकार)
ग्रा. - बगहनी,
पो. - बिगहना,
जिला - इलाहाबाद
(उप्र)
पिन - 212
305
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