पीर बढ़ती
ही रहे पर वो सुनाये न बने
ढूंढते हैं
कि किरन इक तो नजर आए कोई
रात गहरी
हो गई अब ये बिताये न बने
दर्द जितना
भी हो पर आँख छलकती ही नहीं
देह पर घाव
जो गहरे वो छिपाये न बने
छाँव में
जिसकी कटी गर्म दुपहरी थी मेरी
पेड़ की छाँव
सुखद मुझसे भुलाये न बने
बात कुछ भी
न थी पर बात बिगड़ती ही गयी
‘क्या बने
बात जहां बात बनाये न बने’
-
बृजेश
नीरज
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