Friday, 30 August 2013

तरही गज़ल


पेट खाली हैं मगर भूख जताये न बने
पीर बढ़ती ही रहे पर वो सुनाये न बने

ढूंढते हैं कि किरन इक तो नजर आए कोई
रात गहरी हो गई अब ये बिताये न बने

दर्द जितना भी हो पर आँख छलकती ही नहीं
देह पर घाव जो गहरे वो छिपाये न बने

छाँव में जिसकी कटी गर्म दुपहरी थी मेरी
पेड़ की छाँव सुखद मुझसे भुलाये न बने

बात कुछ भी न थी पर बात बिगड़ती ही गयी
‘क्या बने बात जहां बात बनाये न बने’

                                                         -        बृजेश नीरज

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