Friday, 1 March 2013

नज़्म - इल्जाम


राहों के निशां का ये काम है
मुझ पर घिसटने का इल्जाम है

पत्ते बज रहे हैं साज की तरह
साकी, मयकदा, जाम है

अपनी सूरत आईने में देख लो
इस वक्त संवरना ही काम है

तूफां गुजर जाए तो ही कहना
अब यहां आराम ही आराम है

रौशनी की तलाश में पहुंचे यहां
बतलाइए कि क्या इंतजाम है

धुआं धुआं सा छाया है हर तरफ
लोग कहते हैं यहां बहुत घाम है

तेरी बातों का बुरा नहीं मानते अब
पहले से ही हम पर बहुत इल्जाम है

पांव कुछ इस तरह उखड़ने लगे
सम्हलने की हर कोशिश नाकाम है
                      - बृजेश नीरज

6 comments:

  1. अपनी सूरत आईने में देख लो
    इस वक्त संवरना ही काम है

    बहुत ही सुन्दर प्रस्तुतीकरण,आभार.

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    1. आपका आभार राजेन्द्र जी!

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  2. बहुत खूब ... सभी शेर लाजवाब हैं इस गज़ल के ... मक्ते का शेर तो गज़ब है ...

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    1. आदरणीय दिगम्बर जी,
      आपका आभार। आपने मेरी रचना को गज़ल स्वीकारा इसके लिए भी आभार। कुछ लोग तो इसे गज़ल मानने को ही तैयार नहीं थे इसलिए मुझे इसे नज़्म कहना पड़ा।
      एक बार फिर से आपका आभार!
      सादर!

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