घोंघा भी चलता है तो रेत में, धूल में उसके चलने का निशान बनता है फिर मैं तो एक मनुष्य हूं। कुमार अंबुज
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ब्लागर
सुंदर गज़ल ..
ReplyDeleteआपका आभार!
Deleteरचना बहुत अच्छी और सुसंयोजित है पर आपने पिक्चर कितनी डरावनी लगा रखी है!
ReplyDeleteयह रचना मैंने यूं ही लिख दी। मैंने इस पर दुबारा विचार भी नहीं किया तो चित्र भी यूं ही लगा दिया। दरअसल ध्यान इधर कुछ भटका सा है। कुछ साइटों पर देखे शास्त्रीय विमर्श को लेकर कुछ विचलन की स्थिति थी इस वजह से रचना और चित्र दोनों पर विशेष ध्यान नहीं गया। उन्हीं विमर्शों के परिणामस्वरूप मैंने एक प्रयोग का प्रयास किया जो सफल नहीं रहा।
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