Tuesday, 26 February 2013

फसाना कैसा


तेरे लबों पर ठहर जाए फिर फसाना कैसा
इक बात यूं निकल जाए फिर बताना कैसा

ये आरजू कि हम तेरे आगोश में जी लें
तू न नजर आए तो फिर मर जाना कैसा

हमने नहीं कही ये जमाने की है बात
दूर तलक न जाए वो अफसाना कैसा

इक बार जरा हम पर भी करम कीजिए
गुजर जाए अगर रात तो बहाना कैसा
                        - बृजेश नीरज



4 comments:

  1. रचना बहुत अच्छी और सुसंयोजित है पर आपने पिक्चर कितनी डरावनी लगा रखी है!

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    1. यह रचना मैंने यूं ही लिख दी। मैंने इस पर दुबारा विचार भी नहीं किया तो चित्र भी यूं ही लगा दिया। दरअसल ध्यान इधर कुछ भटका सा है। कुछ साइटों पर देखे शास्त्रीय विमर्श को लेकर कुछ विचलन की स्थिति थी इस वजह से रचना और चित्र दोनों पर विशेष ध्यान नहीं गया। उन्हीं विमर्शों के परिणामस्वरूप मैंने एक प्रयोग का प्रयास किया जो सफल नहीं रहा।

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