Monday 31 December 2012

लेख - दमित दामिनी


    
     दिल्ली बस कांड को लेकर प्रदर्शनों का दौर जारी है। सरकार बेबस लाचार नजर आती है। मौत पर दुख जताने और कड़े कदमों का वायदा करने से ज्यादा सरकार कुछ करती नजर नहीं रही या कहें कि कुछ करना नहीं चाहती। करे भी क्यों; सरकार जानती है कुछ भी करने से वोट बैंक को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। इस देश की अधिकांश महिलाएं घर के पुरूषों की ही मर्जी से वोट देती हैं। फिर बेमतलब की धींगामुश्ती से क्या लाभ? ये प्रदर्शन तो दिल्ली की कड़कती सर्दी में एक दिन ठण्डे हो ही जाएंगे। सरकार और इस देश के राजनेता महिलाओं के अधिकारों के लिए कितने गंभीर हैं यह इसी से पता चलता है कि महिला आरक्षण बिल वर्षों से सदन के पटल पर लंबित पड़ा है। आखिर उसे पास कराने के लिए आरक्षण बिल की तरह तेज कोशिशें क्यों नहीं की गयी। इस बिल को लेकर मायावती और सुषमा स्वराज चिंतित क्यों नहीं दिखतीं?
     वैसे भी यह पहली घटना नहीं है। देश में ऐसी कई घटनाएं रोज हो रही हैं। सोनिया गांधी स्वीकार भी कर चुकी हैं कि रेप की घटनाएं देश भर में हो रही हैं। सो, यह सामान्य बात है। इस पर ज्यादा चिंतित होने या शोर शराबा करने की क्या जरूरत है। गोवाहाटी कांड के बाद भी देश भर में बहुत शोर मचा। लोगों ने चिंता जताई, लेकिन कुछ दिनों बाद सब ठंडा। आए दिन होने वाले बलात्कारों पर लोगों ने मौन साध लिया, सरकार गैस सिलिंडरों की संख्या तय करने में लग गयी, नेता वालमार्ट के नशे में चूर हो गए। महिला आयोग से लेकर सरकार तक ने कई वायदे किए, कितनों पर अमल किया गया। सोनाली को ले लें, वर्षों से सत्ता के गलियारों के चक्कर लगाते थककर हार चुकी उस लड़की ने जब आत्महत्या की धमकी दी तो कुछ सनसनी पैदा हुई, कुछ हाथ आगे बढ़े। सरकार ने आजतक उसे सिंगापुर इलाज के लिए क्यों नहीं भेजा? एक आम आदमी की सुरक्षा की गारण्टी यदि सरकार नहीं दे सकती तो उससे उपजे जख्मों का इलाज तो वह कराए।
     इस मामले में भी 13 दिन का समय बीत जाने के बाद भी सरकार ने कोई सार्थक कदम नहीं उठाए सिवाए इस घोषणा के कि इस मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में होगी। सिवाय इसके कि युवती को चुपचाप इलाज के लिए सिंगापुर भेज दिया गया। अब तो इस कदम पर भी सवाल उठ रहे हैं और सवाल उठने लाजिमी भी हैं। शुरूआत से लेकर अभी तक सरकार ने सिर्फ लीपापोती करने और नकली आंसू बहाने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। प्रधानमंत्री और सोनिया कहते हैं कि लड़की का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। बेहतर होता यदि इस तरह के दिल बहलाने वाले संदेशों की जगह सरकार ने कुछ ठोस घोषणाएं की होतीं। इन 13 दिनों में बहुत सकारात्मक कदम उठाए जा सकते थे। 13 दिन बहुत होते हैं। लोकपाल बिल, आरक्षण बिल, एफडीआई पर पहल इससे भी कम दिनों में हुई। अच्छा होता यदि सरकार ने इस तरह के सभी मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में कराने, यदि संदेह की स्थिति हो तो इस तरह के मामलों में आरोपी को जमानत देने, बलात्कारी को आजीवन एकान्त कारावास, सभी मामलों की प्राथमिकी दर्ज हो यह सुनिश्चित करना, प्राथमिकी दर्ज करने से लेकर पीड़िता से पूछताछ तक के सभी कार्य महिला पुलिसकर्मी द्वारा किया जाना, आदि कदमों पर शीघ्रता से कार्य करना शुरू किया होता।
     देश का माथा गरम है। प्रदर्शनकारियों के पास लंबी फेहरिस्त है उन नामों की जो समाज की गंदी प्रवृत्ति का शिकार हुई हैं। प्रदर्शनकारी बलात्कार पीड़ितों के लिए न्याय, फास्ट ट्रैक कोर्ट और बलात्कारियों के लिए कठोर दण्ड की मांग कर रहे हैं। एक बार फिर सरकार और आंदोलकारियों के बीच रस्साकशी देखी गयी जैसी कभी अन्ना और रामदेव के आंदोलनों के दौरान देखने को मिली थी।
सरकार इन सबसे निपटने का रास्ता नहीं निकाल पा रही है। आनन फानन में कुछ पुलिस अधिकारी निलंबित कर दिए गए। सोनिया, राहुल पीड़िता को अस्पताल जाकर देख आए, फिर पीड़िता को चुपके से इलाज के लिए सिंगापुर भेज दिया गया। मीडिया को भी शुरूआत में भनक नहीं लगी। इसमें क्या चोरी थी- जो सरकार इतने गोपनीय तरीके से यह कदम उठाना चाहती थी? कुछ प्रवृत्ति सी है- चुपके से पेट्रोल के दाम बढ़ा देना, अन्ना को गिरफ्तार कर लेना, चुपके से राहुल का कार रेस देखने विदेश चले जाना।
     बहरहाल, इतनी मेहनत के बाद भी आंदोलन समाप्त नहीं हुआ। शीला दीक्षित के प्रदर्शनों से निपटने के सारे उपाय बेकार साबित हुए। शीला जी कोई रामदेव अनशन पर तो बैठे नहीं थे जो महिला वस्त्र में रातोंरात भाग जाते। यहां तो रात में एक महिला के साथ हुई ज्यादती का विरोध खुद महिलाएं कर रही थीं। ऊपर वाले की सरकार पर अनुकंपा हुई, एक कांस्टेबल सुभाष तोमर बेचारा इस आंदोलन के दौरान घायल हो गया और फिर उसकी मौत हो गयी। फिर क्या था इस कांस्टेबल की मौत के कारणों को लेकर जोर आजमाइश शुरू हो गयी। सरकार और प्रशासन को 'आप' के कार्यकर्ताओं पर नकेल कसने का बहाना मिल गया। इतनी धींगामुश्ती के बाद भी कोई नतीजा निकलेगा इसकी उम्मीद कम है।
     प्रमुख सवाल जिसका कोई भी सरकार कभी कोई जवाब नहीं देती कि आखिर शांतिपूर्ण प्रदर्शन से निपटने के लिए बल प्रयोग क्यों किया जाता है? इस बल प्रयोग के लिए दोषी कौन है? इस पर माथापच्ची क्यों नहीं की जाती? यदि आंदोलनरत जनता देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से मिलना चाहती है तो इसमें समस्या क्या है? उन्हें रोका क्यों जाता है? उन पर बल प्रयोग क्यों किया जाता है? क्या इस देश के नेता इस देश की जनता से ऊपर हैं?
     मुद्दे पर फिर लौटा जाए। आंदोलन अनवरत जारी है। इस कड़कती ठंड में आंदोलनकारी अपनी मांगों को लेकर लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं। यह प्रदर्शन कब समाप्त होगा कहा नहीं जा सकता। आंदोलनकारियों की जो मांगें हैं उन्हें पूरा करने की मंशा सरकार में तो नहीं दिखती। वैसे जिस तरह की जितनी मांगें हैं उतना काम तो इस सरकार ने एक साथ कभी नहीं किया सिवाय महंगाई बढ़ाने के।
आखिर कैसे यह प्रदर्शन समाप्त हो? यह अहम सवाल है। ऐसे मामलों से निपटने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट हों यह आवश्यक है लेकिन उससे भी पहले और अधिक आवश्यक है पुलिस की सक्रियता। इस तरह के मामलों में तुरन्त एफआईआर दर्ज हो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह तय किया जाना और ज्यादा जरूरी है कि ऐसे सभी मामलों की सूचना पुलिस तक पहुंचे। इन मामलों से सही तरीके से निपटने के लिए पुलिस बल को संवेदनशील और जवाबदेह बनाने तथा प्र्याप्त पुलिस बल की व्यवस्था करना भी आवश्यक है।
     सबसे अहम बात यह कि केवल पुलिस और कानून इस समस्या का समाधान नहीं। इस समाज को महिलाओं के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। खास तौर पर युवा वर्ग को नैतिकता और मर्यादा की शिक्षा देना भी आवश्यक है। समाज, घर, आफिस, स्कूल में. सडक़, रेल, बस पर महिलायें सुरक्षित रहें इसका उत्तरदायित्व हम सबका विशेषतः पुरूषों का है। मां बाप द्वारा बच्चों को यह भी सिखाना होगा कि किसी महिला या युवती को बुरी नजर से नहीं देखना है। सरकार, समाज और पुरूषों को सदबुद्धि आएगी यही आशा की जा सकती है। वैसे जिस मानसिकता और इच्छा से लोग आंदोलनरत हैं वह भावना जन-जन में पैदा हो जाए तो शायद समस्या ही समाप्त हो जाए।
                             - बृजेश नीरज


دمت دامني

     دہلی بس سانحہ کو لے کر مظاہروں کا سلسلہ جاری ہے. حکومت بے بس اور لاچار نظر آتی ہے. موت پر افسوس جتانے اور سخت اقدامات کا وعدہ کرنے سے مزید حکومت کچھ کرتی نظر نہیں آ رہی یا کہیں کہ کچھ کرنا نہیں چاہتی. کرے بھی کیوں، حکومت جانتی ہے کچھ بھی کرنے سے ووٹ بینک کو کوئی فائدہ نہیں ملنے والا. اس ملک کی زیادہ تر عورتیں گھر کے مردوں کی ہی مرضی سے ووٹ دیتی ہیں. پھر بےمتلب کی دھيگامشتي سے کیا فائدہ؟ یہ مظاہرہ تو دہلی کی كڑكتي سردی میں ایک دن ٹھنڈے ہو ہی جائیں گے. حکومت اور اس ملک کے سیاست داں خواتین کے حقوق کے لیے کتنے سنجیدہ ہیں، یہ اسی سے پتہ چلتا ہے کہ خواتین ریزرویشن بل برسوں سے ایوان کے سکرین پر زیر پڑا ہے. آخر اسے پاس کرانے کے لئے ریزرویشن بل کی طرح تیز کوششیں کیوں نہیں کی گئی. اس بل کے حوالے سے مایاوتی اور سشما سوراج فکر مند کیوں نہیں دكھتي؟
     ویسے بھی یہ پہلا واقعہ نہیں ہے. ملک میں ایسی کئی واقعات روز ہو رہی ہیں. سونیا گاندھی کو قبول بھی کر چکی ہیں کہ ریپ کے واقعات ملک بھر میں ہو رہی ہیں. سو، یہ عام بات ہے. اس پر مزید فکر مند ہونے یا شور شرابا کرنے کی کیا ضرورت ہے. گوواهاٹي سانحہ کے بعد بھی ملک بھر میں بہت شور مچا. لوگوں نے تشویش کا اظہار کیا، لیکن کچھ دنوں بعد سب ٹھنڈا. آئے دن ہونے والے بلاتكارو پر لوگوں نے خاموشی اختیار کر لیا، حکومت گیس سلڈرو کی تعداد طے کرنے میں لگ گئی، لیڈر والمارٹ کے نشے میں چور ہو گئے. خواتین کمیشن سے لے کر حکومت تک نے کئی وعدے کئے، بعض پر عمل کیا گیا. سونالی کو لے لیں، برسوں سے اقتدار کے ایوانوں کے چکر لگاتے تھک کر ہار چکی اس لڑکی نے جب خود کشی کی دھمکی دی تو کچھ احساس پیدا ہوا، کچھ ہاتھ آگے بڑھے. حکومت نے اجتك اسے سنگاپور علاج کے لیے کیوں نہیں بھیجا؟ ایک عام آدمی کی حفاظت کی گارٹي اگر حکومت نہیں دے سکتی تو اس سے پیدا ہوئے زخموں کا علاج تو وہ کرائے.
     اس معاملے میں بھی 13 دن کا وقت گزر جانے کے بعد بھی حکومت نے کوئی مثبت قدم نہیں اٹھائے سوائے اس اعلان کے کہ اس معاملے کی سماعت فاسٹ ٹریک کورٹ میں ہوگی. سوائے اس کے کہ لڑکی کو چپ چاپ علاج کے لئے سنگاپور بھیج دیا گیا. اب تو اس مرحلے پر بھی سوال اٹھ رہے ہیں اور سوال اٹھنے لاجمي بھی ہیں. شروع سے لے کر ابھی تک حکومت نے صرف ليپاپوتي کرنے اور نقلی آنسو بہانے کے علاوہ کچھ نہیں کیا. وزیر اعظم اور سونیا کہتے ہیں کہ لڑکی کا قربانی بیکار نہیں جائے گا. بہتر ہوتا اگر اس طرح کے دل بہلانے والے پیغامات کی جگہ حکومت نے کچھ ٹھوس گھوشاے کی ہوتیں. ان 13 دنوں میں بہت مثبت اقدامات کئے جا سکتے تھے. 13 دن بہت ہوتے ہیں. لوک پال بل، ریزرویشن بل، اےپھڈياي پر پہل اس سے بھی کم دنوں میں ہوئی. اچھا ہوتا اگر حکومت نے اس طرح کے تمام معاملات کی سماعت فاسٹ ٹریک کورٹ میں کرانے، اگر شک کی حالت نہ ہو تو اس طرح کے معاملات میں ملزم کو ضمانت نہ دینے، بلاتكاري کو عمر قید تنہائی، تمام معاملات کی ایف آئی آر درج ہو یہ اس بات کا یقین کرنا، ایف آئی آر درج کرنے سے لے کر پيڑتا سے تفتیش تک کے تمام کام خاتون پولیس اہلکار کی طرف سے کیا جانا، وغیرہ اقدامات پر تیزی سے کام کرنا شروع کیا ہوتا.
     ملک کا ماتھا گرم ہے. مظاہرین کے پاس لمبی فہرست ہے ان ناموں کی جو سماج کی گندی رجحان کا شکار ہوئی ہیں. مظاہرین عصمت دری کے متاثرین کے لئے انصاف، فاسٹ ٹریک کورٹ اور بلاتكاريو کے لئے سخت سزا کی مانگ کر رہے ہیں. ایک بار پھر حکومت اور ادولكاريو کے درمیان رسساكشي دیکھی گئی جیسی کبھی انا اور رام دیو کی تحریکوں کے دوران دیکھنے کو ملی تھی.
حکومت ان سب سے نمٹنے کا راستہ نہیں نکال پا رہی ہے. آنا فانا میں کچھ پولیس اہلکار معطل کر دیے گئے. سونیا، راہول پيڑتا کو اسپتال جا کر دیکھ آئے، پھر پيڑتا کو چپکے سے علاج کے لئے سنگاپور بھیج دیا گیا. میڈیا کو بھی شروع میں معلومات نہیں لگی. اس میں کیا چوری تھی - جو حکومت اتنے خفیہ طریقے سے یہ قدم اٹھانا چاہتی تھی؟ کچھ فطرت سی ہے - چپکے سے پٹرول کی قیمت بڑھا دینا، انا کو گرفتار کر لینا، چپکے سے راہل کی کار ریس دیکھنے خارجہ چلے جانا.
     بہرحال، اتنی محنت کے بعد بھی تحریک ختم نہیں ہوا. شیلا دکشت کے مظاہروں سے نمٹنے کے تمام اقدامات بیکار ثابت ہوئے. شیلا جی کوئی رام دیو انشن پر تو بیٹھے نہیں تھے جو خواتین کے لباس میں راتوں رات بھاگ جاتے. یہاں تو رات میں ایک خاتون کے ساتھ ہوئی جيادتي کی مخالفت خود خواتین کر رہی تھیں. اوپر والے کی حکومت پر انكپا ہوئی، ایک کانسٹیبل سبھاش تو مر بیچارا اس تحریک کے دوران زخمی ہو گیا اور پھر اس کی موت واقع ہو گئی. پھر کیا تھا اس کانسٹبل کی موت کی وجوہات کے حوالے سے زور اجماش شروع ہو گئی. حکومت اور انتظامیہ کو 'آپ' کے کارکنوں پر نکیل کسنے کا بہانہ مل گیا. اتنی دھيگامشتي کے بعد بھی کوئی نتیجہ نکلے گا اس کی امید کم ہے.
     اہم سوال جس کا کوئی بھی حکومت کبھی کوئی جواب نہیں دیتی کہ آخر پرامن مظاہرہ سے نمٹنے کے لئے طاقت استعمال کیوں کیا جاتا ہے؟ اس طاقت کو استعمال کرنے کے لئے مجرم کون ہے؟ اس پر ماتھاپچچي کیوں نہیں کی جاتی؟ اگر ادولنرت عوام ملک کے وزیراعظم یا صدر سے ملنا چاہتی ہے تو اس میں مسئلہ کیا ہے؟ انہیں روکا کیوں جاتا ہے؟ ان پر طاقت استعمال کیوں کیا جاتا ہے؟ کیا اس ملک کے لیڈر اس ملک کے عوام سے اوپر ہیں؟
     مسئلے پر پھر لوٹا جائے. تحریک مسلسل جاری ہے. اس كڑكتي سردی میں ادولنكاري اپنے مطالبات کو لے کر مسلسل مظاہرے کر رہے ہیں. یہ مظاہرہ کب ختم ہوگا کہا نہیں جا سکتا. مظاہرین کی جو مطالبات ہیں انہیں پورا کرنے کی منشا حکومت میں تو نظر نہیں آتی. ویسے جس طرح کی اور جتنی مطالبات ہیں اتنا کام تو اس حکومت نے ایک ساتھ کبھی نہیں کیا سوائے مہنگائی بڑھانے کے.
آخر کس طرح یہ مظاہرہ ختم ہو؟ یہ اہم سوال ہے. ایسے معاملات سے نمٹنے کے لئے فاسٹ ٹریک کورٹ ہوں یہ ضروری ہے لیکن اس سے بھی پہلے اور زیادہ ضروری ہے پولیس کی سرگرمی. اس طرح کے معاملات میں فوری طور پر ایف آئی آر درج ہو یہ اس بات کا یقین کیا جانا چاہئے. اس کے علاوہ یہ طے کیا جائے اور مزید ضروری ہے کہ ایسے تمام معاملات کی اطلاع پولس تک پہنچے. ان معاملات سے صحیح طریقے سے نمٹنے کے لیے پولیس فورس کو حساس اور جواب دہ بنانے اور پرياپت پولیس فورس کا انتظام کرنا بھی ضروری ہے.
     سب سے اہم بات یہ کہ صرف پولیس اور قانون اس مسئلے کا حل نہیں. اس سماج کو خواتین کے تئیں اپنا نجريا تبدیل کرنے کی ضرورت ہے. خاص طور پر نوجوان طبقہ کو اخلاق اور عزت کی تعلیم دینا بھی ضروری ہے. سماج، گھر، آفس، اسکول میں. سڈق، ریل، بس پر مہلایں محفوظ رہیں اس کی ذمہ داری ہم سب بالخصوص مردوں کا ہے. ماں باپ کی طرف سے بچوں کو یہ بھی پڑھایئے ہوگا کہ کسی عورت یا لڑکی کو بری نظر سے نہیں دیکھنا ہے. حکومت، سماج اور مردوں کو سدبددھ آئے گی یہی امید کی جا سکتی ہے. ویسے جس ذہنیت اور خواہش سے لوگ ادولنرت ہیں وہ جذبہ جن - جن میں پیدا ہو جائے تو شاید مسئلہ ہی ختم ہو جائے.
                             - برجےش نیرج


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