Saturday, 3 October 2015

सम्हलो

इस तप्त माहौल में भी
तुम
बांसुरी की तान में मग्न हो

यह बांसुरी इस माहौल को ठंडा नहीं करेगी

सुनो,
शिखरों पर जमी बर्फीली चट्टानों के दरकने की
आवाज़
बर्फ पिघल रही है
पिघल रही हैं सड़कें
पिघल रहे हैं शरीर
मोम के पुतले की तरह

सैलाब उमड़ रहा है
इस सैलाब में बहते जा रहे हैं
पेड़, पत्ते, फूल
मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघर
बाज़ार-महल

अभी यह अट्टालिका भी बहेगी
जिस पर खड़े तुम सुन रहे हो बांसुरी की तान
सम्हलो!
- बृजेश नीरज 

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