बृजेश नीरज जी की काव्य कृति ‘कोहरा सूरज धूप’ अपने नमानुकूल
ही छाप छोड़ती है। जिस प्रकार सर्दी मे कोहरा छाया होता है और सूरज के निकलते ही
धीरे-धीरे छटने लगता है और चारों ओर अच्छी धूप फैल जाती है यह धूप जनमानस को राहत पहुँचाती
है। उनकी कृति यथार्थ का सम्पूर्ण चित्रण करती है, हर रचना जमीन से जुड़ी है। वे छंद मुक्त रचनाएँ लिखते
हैं उनका मानना है कि वैश्विक स्तर पर जन साधारण तक वैचारिक संप्रेषणीयता का सुगम
मार्ग छंद मुक्त रचना ही है। इन रचनाओं के माध्यम से हर वर्ग तक आसानी से पहुँचा जा
सकता है। वे अपनी रचनाओं मे कहीं भी क्लिष्ट शब्दों का चयन नहीं करते हैं। बृजेश
जी समाज के ज्वलंत मुद्दों को ले कर छोटी-छोटी रचनाएँ गढ़ लेते हैं और पाठक तक सीधे
पहुँचने मे कामयाब रहते हैं। उनकी कृति इतनी सुगम है कि मुझे पढ़ने में ज्यादा समय
नहीं लगा। अपनी कृति का आरंभ माँ शारदा की वंदना से करते हैं:-
‘माँ शब्द दो! अर्थ दो!!
रूप अरूप कुरूप में
झूलती देह गल ही जाएगी’
भावों का सीधा और सुगम सम्प्रेषण,
एक और रचना देखिए:-
‘बस
कभी-कभी
रात के सन्नाटे में
एक कराह प्रतिध्वनित होती है
हे भागीरथ!!
तुम मुझे कहाँ ले आए?’
दिन भर की थकान के पश्चात घर पर परिवर के साथ बिताते
हुए सुखद क्षणों में भी कवि आम आदमी की जद्दोजहद को दर्शाता है:-
‘लेकिन,
रात की इस शीतलता में भी
चुभती है एक बात कि
शेष है
कल की रोटी की जुगाड़’
कल्पनाओं को ऊँची उड़ान देते हुये भी वे यथार्थ से
जुड़े ही रहते हैं:-
‘चाहता हूँ मै भी
तोड़ लाना आसमान के तारे
तुम्हारे लिए
लेकिन क्या करूँ
मेरा कद है बौना
हाथ छोटे’
वे छोटी-छोटी स्थितियों को भी सुंदर रचना का रूप दे
देते हैं देखिए:-
‘खाली बाल्टी
और उसमें
नल से
बूँद-बूँद टपकता पानी
मै देख रहा हूँ
किंकर्तव्यविमूढ़
उनकी यह कृति उन्हीं के कहन पर खरी उतरती है कि रचना
छोटी हो, सारगर्भित हो। उनकी हर रचना के गर्भ में गहरे भाव हैं जो मानस को झकझोरते
हैं। कवि की पीड़ा उनकी रचनाओं में झलकती
है, देखिए:-
‘हर बार कलम लिए
चलता हूँ कुछ दूर
कुछ अक्षर कुछ शब्द
बिखर जाते है राह में
फिर थका सा
लौट आता हूँ
अतृप्त .......’
वहीं देश के प्रति उनका प्रेम भी झलकता है:-
‘फिर भी
इस गण के तंत्र मे
जहाँ जन के मन की बात
कोई नहीं सुनता
जन गण मन गाना अच्छा लगता है’
उनकी रचनाओं मे गाँव की माटी की महक,
चूल्हों की दहक, नून-तेल, चुपड़ी रोटी की खुशबू और प्रकृति की छोटी-छोटी
चीजों को लेकर चित्रण एवं जानवरों के प्रति प्रेम साफ झलकता है–
वे अक्सर अपनी रचनाओं में बिल्ली,
कुत्ता, कुतिया, उल्लू, भैंस इत्यादि को इंगित करते हुए भी लिखते हैं:-
‘वह भूरी बिलार थी न
नहीं दिखती अब
पीपर के पास वाला
करिया कूकुर भी
आजकल नहीं दिख रहा
खिलावन की भैंस भी
एक दिन चरते-चरते ...........’
‘अच्छा हुआ
तुम लौट आए
हम फिर बैठेंगे
साथ-साथ
लेकर ढेर सारी बातें
लइया, चना, गुड़
और हरी मिर्च की चटनी’
माँ की आराधना से आरंभ हुई उनकी कृति,
‘राम कहाँ हो!!’ पर आकर रुकती
है:-
‘समय हतप्रभ
धर्म ठगा सा है आज फिर
राम तुम कहाँ हो!’
नीरज जी ने बड़े मनोयोग से सामान्य शब्दों के साथ
सुंदर रचना की है, हर रचना एक संदेश प्रेषित करती है। कवि क्यों लिखता
है? इसीलिए न कि
उसके भाव साधारण से साधारण जनमानस तक पहुँचें, उनकी कृति इस पर पूरी तरह खरी है।
उपरोक्त केवल मेरे विचार है कोई समीक्षात्मक टिप्पणी नहीं है। बृजेश जी साहित्य के
जगत में उच्चतम शिखर पर स्थान पाएँ, इस अभिलाषा के साथ प्रणाम।
...अन्नपूर्णा बाजपेई
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