देखो, ये साये
अब गहराने लगे
धूप कम थी
बादल भी आने
लगे
आराम की ओढ़कर
चादर तू लेट
क्या करना कुछ
लोग चिल्लाने लगे
हादसा हुआ, इकटठी
हो गयी भीड़
लोग कुछ बोलने
से कतराने लगे
क्या फर्क पड़ेगा
कोई मरा या
जिया
ये हमारी जिंदगी, हम गुनगुनाने लगे
लग गयी आग
इक रोज बस्ती
में
लोग इधर उधर
रास्ते तलाशने लगे
किसी ने आवाज
नहीं दी लेकिन
अपनी फितरतें वो खुद
बतलाने लगे
इक परिंदा ख़ुराक की तलाश
में था
लोग उसको ही
भूनकर खाने लगे
- बृजेश
नीरज

वास्तब मे 'ये हमारी जिन्दगी...' ही तो आज का मूलमन्त्र है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा आपने!
अपनी जिन्दगी से इतर किसी और की जिन्दगी की परवाह ही नहीं!
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