Wednesday 8 August 2012

लेख - गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास


सिंहासन छोड़ो जनता आती हैके सिंहनाद के साथ टीम अन्ना राजनीति में प्रवेश कर गयी। जंतर मंतर से सिंहनाद तो हुआ लेकिन इसमें विफलता का नाद अधिक और सिंह नदारद था इसीलिए इस घोषणा ने देश में कोई विशेष हलचल नहीं पैदा की; हां, अचम्भित  जरूर किया।
इस पूरे आंदोलन के दौरान शंका कभी कभार होती थी कि हो हो यह आंदोलन राजनीति की तरफ जा रहा है लेकिन लगातार इन अटकलों का खंडन किया जाता रहा। आखिरकार अटकलें सही साबित हुईं और खंडन गलत। इस पूरे घटनाक्रम को देखकर दिल से कोई उद्गार नहीं निकलते।
कुछ प्रश्न जरूर दिमाग में आते हैं। राजनीति में प्रवेश क्यों? आखिर राजनीति में उतरने की इतनी जल्दी क्या थी? दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि कभी किसी सत्ता ने व्वस्था परिवर्तन को जन्म नहीं दिया है। सत्ता स्वभाव से निर्दयी और तटस्थ होती है। जहां से उसका जन्म हुआ है उस व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन उसे स्वीकार नहीं होता। तो फिर टीम अन्ना सत्ता में आकर किस व्यवस्था में परिवर्तन करेगी? या फिर राजनीति में प्रवेश की घोषणा अनशन को समाप्त करने का एक कारगर बहाना मात्र है?
अन्ना के पिछले अनशन के दौरान उन्हें जो जनसमर्थन मिला था और जिस तरह की भीड़ उमड़ी थी वह इस बार नदारद थी। उसके कारण भी हैं। पिछले अनशन के दौरान आंदोलन को जिस तरह कुचलने का प्रयास किया गया उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप सरकार और कांग्रेस को देश की जनता का कोप सहना पड़ा। दरअसल उस वक्त सरकार और अन्ना दोनों ने एक दूसरे कोअण्डरएस्टीमेटकिया था। अन्ना को सरकार से निरंकुशता के रौद्र रूप की उम्मीद नहीं थी तो सरकार यह आकलन करने में असफल रही कि आंदोलन को दबाने की कोशिश जनता की ऐसी प्रतिक्रिया को जन्म दे सकती है। लेकिन इस बार सोनिया की किचन कैबिनेट ने कुटिलता का परिचय दिया और आंदोलन को कोई तवज्जो नहीं दी। अन्ना को अनशन की लगभग आसानी से अनुमति मिल गयी इसीलिए बिना किसी हलचल के शुरू हुआ अनशन जिस्म-2 की खुमारी, भारत- श्रीलंका वनडे श्रंखला ओलंपिक की धूम और ग्रिड फेल होने के शोर शराबे के बीच दबकर रह गया।
इस पूरे आंदोलन पर दृष्टिपात करें तो व्यवस्था से लड़ाई से ज्यादा यह कांग्रेस विरोध का रूप अख्तियार कर चुका था। इसके अलावा आपसी अंतर्विरोध भी बराबर सुर्खियां बटोरते रहे हैं। इन सबने जनता के मन खटास भरी है। तकनीकी रूप से भी आंदोलन कमजोर ही रहा है। जहां नई तकनीक सूचना प्रसार के नये साधनों का भरपूर इस्तेमाल किया गया वहीं आंदोलन के मौलिक सिद्धान्तों की अनदेखी की गयी। सही मायने में इस आंदोलन की दूरगामी और विस्तृत रूपरेखा तैयार ही नहीं की गयी थी। टीम अन्ना के पास ठोस वैकल्पिक कार्यक्रमों का अभाव था। यह सही है कि कोई भी आंदोलन लगातार लंबे समय तक नहीं चलाया जा सकता है उसमें विराम की आवश्यकता होती है। लेकिन उस विराम की अवस्था में कुछ ऐसे छोटे कार्यक्रम चलाए जाते हैं जो लोगों को आंदोलन से जोड़े रखते हैं। भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान भी बड़े बड़े आयोजनों के अन्तराल में छोटे छोटे कार्यक्रम चलाए गए जो केवल जनता को जोड़े रखते थे बल्कि उनमें जागरूकता भी लाते थे। उस समय मीडिया के एकमात्र साधन के रूप में अखबारों को कार्यक्रम से लोगों को लगातार जोड़े रखने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। टीम अन्ना मोबाइल और इंटरनेट जैसे आधुनिक हथियारों का बखूबी इस्तेमाल करती रही लेकिन देश की उस 80 प्रतिशत जनता तक अपनी बात लगातार पहुंचाने का कोई ठोस उपाय उनके पास नहीं था, जिसकी पहुंच से इंटरनेट बहुत दूर है। छोटे कार्यक्रमों की कमी के कारण दो अनशनों के बीच के अन्तराल में यह आंदोलन जनता से दूर हो गया।
इस बार के अनशन में जन समर्थन की कमी और सरकार द्वारा कोई प्रतिक्रिया देकर तटस्थ बने रहने से अनशन को अंजाम तक पहुंचाने का दायित्व टीम अन्ना पर ही गया। राजनीति में प्रवेश की घोषणा आंदोलन का परिणाम नहीं है वरन् किंकर्तव्यविमूढ़ता का द्योतक है। दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मण्डेला का राजनैतिक उदभाव उनके लंबे संघर्ष का परिणाम था। टीम अन्ना का राजनीति में प्रवेश उस तरह की परिणति के रूप में नहीं देखा जा सकता। इस घोषणा में हताशा भी है और आकांक्षा भी। अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं कि इस राजनैतिक घोषणा में अन्ना कितने हैं और टीम कितनी है।
बहरहाल टीम अन्ना राजनीति में प्रवेश कर चुकी है। अब देखना यह है कि राजनैतिक पार्टी के रूप में इस देश के लिए उसके पास क्या योजना है क्योकि यह तो मानना ही पड़ेगा कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए बिना और काले धन के प्रवाह को रोके बिना देश का भला नहीं हो सकता लेकिन केवल जनलोकपाल इस देश की जनता का पेट नहीं भर सकता और देश को टीम अन्ना से इस बारे में ठोस योजना की उम्मीद तो है ही।
राजनैतिक पार्टी के रूप में टीम अन्ना को अपने को फिर से संगठित और योजनाबद्ध करना होगा। उन्हें सोचना होगा कि उन्हें वोट कौन देगा और क्यों? अगर पिछले अनशन से मिले जनसमर्थन से वह कोई मुगालता पालते हैं तो उनका धाराशायी होना निश्चित है क्योंकि इस देश की जनता बिजली की समस्या को लेकर एकजुट होकर रास्ता जाम करती है और फिर धार्मिक स्थल या मूर्ति को लेकर विभाजित हो जाती है। यहां के लोग अपनी फरियाद लेकर जिस स्थानीय नेता के पास जाते हैं वोट देते समय उसी को भूल जाते हैं। धर्म, सम्प्रदाय और जाति में विभाजित इस देश की जनता की सोच में कार्ल माक्र्स और गांधी परिवर्तन नहीं ला सके, लोहिया का समाजवाद प्रभाव नहीं डाल सका, जयप्रकाश नारायण का प्रयास विफल हो गया तो फिर अन्ना इस देश की जनता की सोच में कितना परिवर्तन ला सकेंगे यह विचारणीय है।
आमरण अनशन जनलोकपाल के लिए जन समर्थन भी जुटा सकता है, सरकार को मजबूर भी कर सकता है लेकिन व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन की सतता आवश्यक होती हैं; लंबे संघर्ष और त्याग की आवश्यकता होती है। आंग सू की जैसे कितने उदाहरण हैं जिनका जीवन व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में कष्टों में बीत गया। अभी तो टीम अन्ना व्यवस्था परिवर्तन के दौरान सत्ता के क्रूर चेहरे से रूबरू भी नहीं हुई।
एक सत्य को स्वीकारना होगा कि सत्ता कभी क्रान्ति का जरिया नहीं बन सकती। हां, क्रान्तियों और आंदोलनों ने सत्ता के दरवाजे जरूर खोले। मोरारजी देसाई की सरकार का गठन और असम में असम गण परिषद की सरकार इसके उदाहरण हैं। यह अलग बात है कि ये दोनों ही सरकारें स्वार्थों के टकराव की भेंट चढ़ गयीं। संपूर्ण क्रान्ति व्यवस्था परिवर्तन की बात करने भर से प्रारंभ नहीं होती।
टीम अन्ना के लिए रास्ता बहुत कठिन है। उनके सामने चुनौती है अपनी राजनैतिक पहचान बनाने की और अपन उद्देश्यों और वादों पर खरा उतरने की। क्षेत्र, जाति, धर्म और सम्प्रदाय में बंटे इस देश में टीम अन्ना अपनी राजनीति कैसे प्रारम्भ करती है यह देखने वाली बात होगी और यही उनका भविष्य भी तय करेगी।
                                                   - बृजेश नीरज


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